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Shri Mad Vallabhacharya Mahaprabhuji | Shrinathji Temple, Nathdwara
 

शुद्धाद्वैत ब्रह्मवाद के व्याख्या और पुष्टिमार्ग के संस्थापक श्रीमद् वल्लभाचार्य जी का प्राकट्य वैशाख कृष्ण एकादशी वि.स. १५३५ (ईस्वी सन् १४७८) को हुआ था। आपके पिता श्री लक्ष्मण भट्ट और माता इल्लम्मागारू थे। इस परिवार का मूलतः स्थान आंध्रप्रदेश के खम्मन् के निकट कांकडवाड़ नामक गांव था। ये तैलंग ब्राह्मण थे और कृष्ण यजुर्वेद की तैतरीय शाखा के अन्तर्गत इनका भारद्वाज गौत्र था।

सौ सोमयज्ञों का फल भगवद् अवतार - यह परिवार धार्मिक निष्ठा वाला था। श्री लक्ष्मणभट्ट से पाँच पीढी पूर्व इस काल में श्री यज्ञनारायण भट्ट ने ३२ सोमयज्ञ किये। इनके पुत्र श्री गंगाधन भट्ट ने २८, इनके पुत्र श्री गणपति भट्ट ने ३०, इनके पुत्र श्री बालम भट्ट ने ५ और इनके पुत्र श्री लक्ष्मण भट्ट ने ५ सोमनाथ किये। इस प्रकार सौ सोमयज्ञ पूर्ण हुए। श्री यज्ञनारायण को यह वरदान मिला था कि सौ सोमयज्ञ सम्पन्न होने पर उनके वंश में भगवान का अवतरन होगा। श्री वल्लभाचार्य के पिता के समय सोमयज्ञों की संखया पूरी हुई। तब श्री वल्लभाचार्य का प्राकट्य हुआ।

चम्पारण्य में प्राकट्य - श्री लक्ष्मण भट्ट कांकरवाड़ से तीर्थयात्रा करते हुए काशी आये और यहीं निवास बनाया। श्री लक्ष्मण भट्ट के पुत्र रामकृष्ण और दो पुत्रियां सरस्वती और सुभद्रा नामक हो चुके थे। इल्लम्मागारू पुनः सगर्भा थी। तभी काशी पर यवनों का आक्रमण होने की जोरदार अफवाह फैली। ऐसी स्थिति में श्री लक्ष्मण भट्ट ने काशी छोड़ ने का निश्चय कर लिया और अपनी पत्नी के साथ निकल पडे । लम्बी थकान वाली और कष्टदायक यात्रा तथा मानसिक तनाव के कारण इल्लम्मागारू का सतमासा प्रसव मध्यप्रदेश के रायपुर जिले के चम्पारण्य नामक विहड़ में शमी वृक्ष के नीचे हो गया। इस पिण्ड में हलचल और चैतन्य के लक्षण दिखाई नहीं पड़ रहे थे। इसलिए नवजात शिशु को मृत समझ कर पत्तों में लपेट कर शमी वृक्ष के कोटर में रखकर श्री लक्ष्मणभट्ट अपनी पत्नी के साथ आगे चौडा गांव चले गये। वहां रात्रि में दोनो को स्वप्न में ज्ञात हुआ कि जिस नवजात शिशु को वे मृत जानकर छोड़ आये थे वह तो सौ सोमयज्ञों के बाद होने वाला भगवान् का प्राकट्य है । वे पुनः चम्पारण आये। वहां जाकर देखा कि जहां शिशु को रखकर आये थे, उस स्थान के चारों तरफ अग्नि का घेरा है, माना धधकता हुआ अग्नि कुण्ड हो। ममतामयी माँ आग की परवा न करते हुए शिशु के पास जा पहुँची मानों अग्नि ने उन्हे राह दे दी हो। माँ इल्लम्मागारू ने बालक को उठा लिया और हृदय से लगा लिया। इसी बीच सूचना मिली कि काशी पर आया संकट टल गया है। अतः श्री लक्ष्मण भट्ट पत्नी, पुत्र के साथ काशी लौट आये। यहां आकर नामकरण संस्कार किया। बालक का नाम वल्लभ रखा। पांच वर्ष की आयु में श्रीवल्लभ का यज्ञोपवीत संस्कार हुआ। छोटी उम्र में श्री वल्लभ ने वेद शास्त्रों का गहरा अध्ययन कर लिया। पिता एवं गुरूजन उनकी असाधारण प्रतिभा से आश्चर्य चकित थे। एक दिन यज्ञ शाला में श्री लक्ष्मण भट्ट को स्वप्न हुआ कि भगवान् के मुख रूप वेश्वानर ने ही उनके घर में पुत्र रूप में जन्म लिया है। लोग श्री वल्लभ की अलौकिक प्रतिभा को देखकर उन्हे बाल सरस्वती कहने लगे। जब श्री वल्लभ ग्यारह वर्ष के ही थे तभी आपके पिता श्री लक्ष्मणभट्ट वैकुण्ठवास हो गये। तब श्री वल्लभ अपनी माता के साथ दक्षिण यात्रा पर निकले। मार्ग में ओरछा नरेश की विद्वद्सभा में और जगन्नाथपुरी के जगदीश मंदिर में आप ने अपने अगाध पांडित्य और अलौकिक प्रतिभा का परिचय दिया। जगन्नाथ मंदिर में विद्वानों की सभा जुड़ी थी, जिसमें राजा भी उपस्थित था। सभा में चर्चा हो रही थी कि (१) मुख्य शास्त्र कौन सा है ? (२) मुख्य कर्म क्या है ? (३) मुख्य मंत्र क्या है ? (४) मुख्य देव कौन है। सभी अपने-अपने मत प्रस्तुत कर रहे थे लेकिन सर्व सम्मत हल नहीं खोजा जा सका था। बाल सरस्वती श्री वल्लभ भी ब्रह्मचारी वेश में यहां जा पहुँचे। आपने अनुमति मांग शास्त्र सम्मत उत्तर दिया। अधिकतर विद्वानों ने इस निर्णय की प्रशंसा की लेकिन कुछ जिद्दी और खुद को महान् पंडित मानने वाले विद्वानों ने इसका प्रमाण चाहा। तब स्वयं प्रभु श्री जगन्नाथ जी ने श्री वल्लभ के मंत्तव्य की पुष्टि निम्नलिखित श्लोक से कीः- एंक शास्त्रं देवकी पुत्र गीतम्, एको देवों देव की पुत्र एव। मंत्रोंस्यकस्तस्य नामामि यानि, कर्माप्येकं तस्य देवस्य सेवा॥ अर्थात् - (१) देवकी पुत्र भगवान् श्रीकृष्ण द्वारा बाँची गयी श्री मद् भागवत् गीता ही एक मात्र शास्त्र है। (२) देवकी नंदन श्रीकृष्ण ही एकमात्र देव है। (३) उन भगवान श्रीकृष्ण के नाम ही मंत्र है। और भगवान् श्रीकृष्ण की सेवा ही एकमात्र धर्म है। श्री वल्लभ की इस प्रतिभा को सभी विद्वत्तजन मंडल ने नत्मस्तक होकर स्वीकार किया।

श्री वल्लभ प्रवास करते हुए दक्षिण में विजयनगर पहुँचे जँहां आपके मामा राजा के दानाध्यक्ष थे। विजयनगर (विद्यनगर) हिन्दू राज्य था और उस समय विद्या का महान् केन्द्र था। राजा कृष्णदेव ने विद्वानों की एक विराट सभा का आयोजन किया था। विचारणीय विषय था कि भारत के प्रधान शास्त्रों वेद, उपनिषद, ब्रह्मसूत्र, गीता आदि का मत द्वेतपरक है या अद्वैतपरक। श्री वल्लभ ने एकमात्र शब्द को ही प्रमाण बतलाय और प्रस्थान चतुष्टयी (वेद, ब्रह्मसूत्र, गीता और भागवत) के आधार पर शुद्धाद्वैत, साकार ब्रह्म का विरूद्ध धर्माश्रयत्व और जगत का सत्यत्व सिद्ध किया। मायावाद का खण्डन किया। आपको विजयी घोषित किया गया और स्वर्ण पीठ पर बिराजमान करके आपका कनकाभिषेक किया गया। आपको अखण्डभूमण्डालाचार्य वर्य जगद्गुरू श्री मदाचार्य की उपाधि से सम्मानित किया गया। आपने कनकाभिषेक के स्वर्ण को स्नान के जल के समान अस्पर्श्य मानकर लेने से इंकार कर दिया और स्वर्ण को पंडितों में बँटवा दिया। राजा ने पुनः थाल भर स्वर्ण मुद्राएं समर्पित की किन्तु उनमें से भी आपने केवल सात मुद्राएं स्वीकार की जिनके नूपुर बनवाकर ठाकुर जी को समर्पित किये।

श्री मद् वल्लभाचार्य ने तीन बार नंगे पैरों से भारत भ्रमण किया तथा विद्वानों से शास्त्रार्थ करके अपने सिद्धान्तों का प्रचार किया। ये यात्राएं लगभग उन्नीस वर्षो में पूरी हुई। प्रवास के समय आप अपना मुकाम भीड़-भाड़ से दूर किसी एकांत में किसी जलाशय के किनारे पर करते थें। आपने जहां श्रीमद् भागवत् पारायण किये हैं वे स्थान आज बैठकों के नाम से जाने जाते हैं, ये आपकी ८४ बैठकें प्रसिद्ध है।

द्वितीय धर्म प्रचार प्रवास के समय पंढरपुर में आपको स्वयं भगवान श्री विट्ठलनाथजी ने गृहस्थाश्रम स्वीकार करने की आज्ञा दी। भगवद् आज्ञा को शिरोधार्य कर श्री वल्लभाचार्य ने काशी आकर श्रीदेवन भट्ट की सुपुत्री महालक्ष्मीजी से विवाह किया। विवाह के उपरान्त आप तीसरी बार पुनः पृथ्वी परिक्रमा के प्रवास पर पधारे।

सारे भारत में श्री वल्लभाचार्य की ख्याती फैल गई थी। देश के प्रसिद्ध विद्वान् आपसे चर्चा करने आते और विशाल जन समूह आपके वचनामृत पान के लिए उमड़ता था। आप मायावाद निराकर्ता और शुद्धाद्वैत ब्रह्मवाद वैष्णव आचार्य के रूप में विखयात हो चुके थें। गुजरात सौराष्ट्र की यात्रा की और यात्रा पूर्ण कर आप झारखण्ड नामक स्थान पर पधारे। इस स्थान पर आपको भगवद् प्रेरणा हुई कि ब्रज पधार कर देवदमन श्री गोवर्धनधर की सेवा प्रणाली स्थापित करें। अतः आप ब्रज की ओर चल दिये। गोकुल पहुँचकर आपने गोविन्द घाट पर विश्राम किया। रात्रि को आप चिन्तन कर रहे थे कि जीव स्वभाव से ही दोषों से भरा हुआ है, उसको पूर्ण निर्दोष कैसे बनावें। परम कपालु आचार्य श्री को श्रावण शुक्ला एकादशी की मध्यरात्रि में प्रभु श्री गोवर्धनधरण का आदेश हुआ कि ब्रह्म सम्बंध से जीवों के सभी प्रकार के दोषों की निवृति हो जावेगी। आपने इस आज्ञा आदेश को शिरोधार्य किया। प्रभु को पवित्रा धराकर मिश्री भोग धराया। प्रातः आपने प्रिय शिष्य दामोदरदास हरसानी को ब्रह्म सम्बंध की दीक्षा दी। इसी दिन से पुष्टि संप्रदाय में दीक्षा का शुभारंभ हुआ।

भगवद् आज्ञा का पालन करने के लिए आचार्य श्री आन्योर ग्राम पधारे। यहाँ आपको गोवर्धन घर के प्राकट्य की बात ज्ञात हुई ।आप सदूपाण्डे के चबूतरे पर आकर बिराजे ।उसी समय गिरिराज पर्वत पर श्री गोवर्धनधरण को अपने प्रिय के आने की बात विदित हुई। आपने ऊपर से ही सदू पाण्डे की पुत्री नरो को दूध लाने का आदेश दिया। नरो दूध लेकर गई। वापस आने पर श्रीवल्लभाचार्य ने बचा दूध मांगा। इसके पश्चात् आप गिरिराज जाकर प्रभु गोवर्धनधरण के दर्शन करने पधारे। प्रभु अपने प्रिय से मिलने स्वयं कन्दरा से बाहर पधारे। दोनों का अद्भुत परस्पर मिलन हुआ दोनों आलिंगन बद्ध हो गये।

आप श्री ने गोवर्द्धनधरन देवदमन श्रीनाथजी की सेवा प्रणाली निश्चित की। रामदास चौहान को सेवा सौंपी। सदू पाण्डे और माणक पांडे आदि ब्रजवासियों को सेवा के लिए सामग्री जुटाने का कार्य सौंपा। आपने सबसे पहले श्रीनाथजी को धोती, पाग, चन्द्रिका व गुंजामाला का श्रृंगार धराया। बेजड़ की रोटी और टेंटी का साग भोग में धराया। इसके पश्चात् पुनः यात्रा के लिए प्रस्थान किया। महाप्रभुजी का गृहस्थ जीवन आदर्शमय था। उनमें लौकिकता के प्रति आसक्ति नहीं थी। स्वतंत्र भक्तिमार्ग के संस्थापक होने पर भी आपने वैदिक मर्यादाओं का पालन किया। आपने तीन सोमयज्ञ किये। श्रीमद् वल्लभाचार्य जी के दो पुत्र हुए। प्रथम श्रीगोपीनाथ जी व द्वितीय श्री विट्ठलनाथजी। आपने श्रीनाथजी के लिए छोटा-सा मंदिर बनवा दिया था। बाद में भगवत् प्रेरणा से अम्बाला के पूरनमल खत्री ने आपसे अनुमति लेकर श्रीनाथजी का विशाल मंदिर बनवाया जो संवत् १५७६ में तैयार हुआ।

लोकमंगलकारी श्री वल्लभ गृहस्थाश्रम की मनोहर वाटिका में अधिकदिन आनंदित नहीं रह सके। अतः सुबोधिनी का कार्य पूर्ण होते ही पत्नी से अग्नि प्रकोप द्वारा आज्ञा प्राप्त कर मानस सन्यास, दण्डधारण कर लिया। सन्यासांतर श्री वल्लभाचार्य जी काशी में हनुमानघाट पर रहने लगे। कुछ समय बाद दोनों पुत्र पिता के दर्शनार्थ आये परन्तु आपने मौन धारण कर लिया था। अतः बातचीत न कर गंगाजी के रेत पर साढे़ तीन श्लोक द्वारा शिक्षा दे दी। ये श्लोक शिक्षा श्लोकों के नाम से पुष्टि संप्रदाय में विख्यात है।

पुनः भगवद आज्ञा हुई। आप गोवर्द्धन धरण श्रीनाथजी के दर्शन कर सजल नेत्रों से आचार्य श्री वि. स. १५८७ आषाढ शुक्ला २ के उपरान्त तृतीया के मध्याह्त के समय स्वयं पुण्य प्रवाहिनी भगवती गंगाजी के निर्मल जल में समाधि हेतु पधारे। थोडी देर में आपका श्री विग्रह दृष्टि से ओझल हो गया। केवल एक प्रकाशपुंज निकला और आकाश में विलीन हो गया। पुष्टिमार्ग के महाप्रभु के स्वधाम प्रस्थान को आसुर व्यामोह लीला कहा जाता है।